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लेखनी कहानी -05-Jan-2023 (6)नाच ना जाने, आँगन टेढ़ा ( मुहावरों की दुनिया )



शीर्षक = नाच ना जाने आँगन टेड़ा




"आ गए आप लोग, गांव घूम कर, चलिए हाथ मुँह धो लीजिये, उसके बाद खाना लगा देती हूँ, भूख लगी होगी आप दोनों को "सुष्मा जी ने कहा


"हाँ, बहुत भूख लगी है, तो आज़ क्या बनाया है, खाने में? " दीन दयाल जी ने कहा


"मैंने नही बनाया है, आज़ सारा खाना बहु ने बनाया है, मैंने तो सिर्फ उसकी थोड़ी बहुत मदद की थी बस " सुष्मा जी ने कहा

"क्यूँ तुम उस बेचारी को गर्मी में, रसोई घर में खाना बनाने दे रही हो, उसे आदत नही है, इस तरह रसोई में खाना बनाने की वो भी गर्मी में "दीन दयाल जी ने कहा


"मैंने तो बहुत मना किया था उससे, लेकिन उसने मेरी एक ना सुनी और ज़िद्द करके खुद ही खाना बनाने लग गयी, और अब तो सारा खाना बना भी दिया, चलिए हाथ मुँह धो लीजिये फिर खाना खाते है " सुष्मा जी ने कहा


"ठीक है, चलो खाना खाते है, आज़ हमें भी कुछ अच्छा खाने को मिलेगा, वरना तो हम रोज़ आपके हाथ का खा कर ऊब से गए थे " दीन दयाल जी ने सुष्मा जी को तंग करते हुए कहा

"भूलिये मत, बहु कुछ दिन की मेहमान है, फिर उसे शहर चले जाना है, उसके बाद आप को मेरे हाथ का ही खाना है, कही ऐसा ना हो की मैं आपको खाने को ही नही दू, फिर पकाते रहना खुद ही " सुष्मा जी ने कहा

"अरे,, अरे,, आप तो नाराज़ हो गयी हम तो मज़ाक कर रहे थे, आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती है " दीन दयाल जी ने कहा


मानव उन्हें इस तरह देख अंदर ही अंदर मुस्कुरा रहा था

"चलिए अब झूठी तारीफ करना बंद कीजिये, जाइये हाथ मुँह धोकर आइये हमारे पोते को भी भूख लगी होगी, मैं ज़ब तक खाना लगाती हूँ " सुष्मा जी ने कहा


"ठीक है " ये कहकर दीन दयाल जी अपने पोते को लेकर हाथ मुँह धोने चले जाते है

वही दूसरी तरफ, राधिका और सुष्मा जी ने मिलकर खाना लगा दिया था, और फिर सबने बहुत मजे लेकर खाना खाया, जो की बहुत स्वादिष्ट बना था, दीन दयाल जी और सुष्मा जी को यकीन नही आ रहा था, कि राधिका इतना अच्छा खाना बनाना भी जानती है, उन्हें तो लगा था कि राधिका से कुछ नही आता होगा, क्यूंकि वो एक डॉक्टर है और शहर के माहौल में पली बडी है, लेकिन राधिका ने अपने हाथ का बना खाना खिलाकर सबको साबित कर दिया कि वो डॉक्टर के साथ साथ एक अच्छी ग्राहस्थी सँभालने वाली एक सर्वगुण संपन्न लड़की है


आज़ सुष्मा जी और दीन दयाल जी को थोड़ा बुरा लग रहा था, क्यूंकि ज़ब उनके बेटे ने दूसरी बार उनका दिल दुखा कर शहर में ही अपने साथ पढ़ने वाली और काम करने वाली राधिका से शादी की बात कही थी,


उन्हें लगता था कि शहर की लड़की और गांव की लड़की में ज़मीन आसमान का फर्क होता है, जो की सही भी है लेकिन राधिका ने साबित कर दिया था कि अगर परवरिश अच्छी जगह मिली हो तो फिर क्या शहर और क्या गांव, भले ही आज़ शहर में पले बड़े बच्चें संस्कारो से दूर होते जा रहे है, जिसमे कही उनके माता पिता का और समाज का ही दोष है, जो शहर में रहने के नाम पर और संयुक्त परिवार को एक बुरी नज़र की तरह देखते है और तो और अपने बुज़ुर्गो की बताई बातों को उनसे प्राप्त करने वाली शिक्षा को रूड़ी वादिता का नाम देकर उसका उपहास बनाते है और आधुनिकता के नाम पर हर दिन अपनी जड़ो को काट रहे है, अपने ही हाथो से


तो हम कहा थे, दीन दयाल जी और सुष्मा जी अब संतुष्ट थे, कि उनके बेटे का मुक़ददर एक गुणवान लड़की के हाथो में है, जो घर और बाहर दोनों बखूबी सँभालने का हुनर रखती है, जिसमे शहर का होने की वजह से समझदारी, चालाकी और अपने पैरों पर भी खड़ी है, जो मुसीबत आने में अपने परिवार को पाल सकती है, उसी के साथ साथ उसे गृहस्थी भी संभालना आती है, पढ़ी लिखी और अपने पैरों पर खड़े होने का ग़ुरूर और घमंड उसके आड़े नही आता और वो पतीव्रता पत्नि होने का धर्म निभाना भी जानती है


सब ने पेट भर खाना खाया, स्वादिष्ट बना होने के कारण सबने ज्यादा ही खाया दोनों राधिका को सदा सुहागन रहो का आशीर्वाद देकर चले जाते है


राधिका भी बहुत खुश थी उनसे आशीर्वाद लेकर, लेकिन उसे कही ना कही उसे आशीष की कमी खल रही थी, वो मन में सोच रही थी की आशीष भी यहाँ होते तो कितना अच्छा होता, तब ही पास बैठे मानव ने उसे आवाज़ देकर कुछ माँगा और वो भी अपना खाना खत्म कर अंदर चला जाता है, अपने कमरे में राधिका भी घर का काम ख़त्म कर अपने कमरे में चली जाती है, और आशीष को फ़ोन कर उससे बाते करती है, उससे वहाँ आने का कहती है, लेकिन आशीष काम का बहाना बना देता है


इसी तरह दोपहर से शाम और फिर शाम से रात हो जाती है, मानव फिर अपने दादा के पास आ जाता है, एक नये मुहावरें का अर्थ समझने, वो अपने दादा को वो परचा देता और कहता " दादा जी आज़ मुझे इस मुहावरें का अर्थ समझना है, ये मुहावरा मम्मी अक्सर बोला करती है, ज़ब भी हमारी काम करने वाली दीदी कुछ गलत करती है, लेकिन मैंने कभी उनसे पूछा नही की वो ऐसा क्यूँ कहती है? आज़ ज़ब इस पर्चे पर वही मुहावरा देखा तो सोचा क्यूँ ना आपसे ही आकर पूछ लू


"अरे अरे बेटे, थोड़ा सास तो लो, लाओ दिखाओ कोनसा मुहावरा है, जिसे तुमने समझना है और अपनी कॉपी में लिखना है  " दीन दयाल जी ने कहा

 मानव ने दीन दयाल जी को दिखाते हुए कहा, पर्चे की तरफ ये दादा जी इसका नाम है " नाच ना जाने,,,, 


"नाच ना जाने, आँगन टेड़ा " दीन दयाल जी ने कहा, उसकी बात पूरी होने से पहले


"जी दादा जी, यही मुहावरा,, ये मुहावरा मम्मी बहुत बार बोलती है, हमारी मासी से " मानव ने कहा


"अच्छा, तो बताओ आखिरी बार उन्होंने कब बोला था, और तुम्हारी उन दीदी ने क्या बनाया था? जो तुम्हारी मम्मी ने ये मुहावरा बोला था  " दीन दयाल जी ने कहा


"उम,, उम,,, उम,,, शायद दीदी ने केक बनाया था, क्यूंकि मम्मी से वो कई बार कह चुकी थी की उनके हाथ का बना केक बेहद स्वादिष्ट होता है, लोग उंगलियां चाट चाट कर खाते है, वो उनसे भी अच्छा केक बनाना जानती है " मानव ने कहा


"तो फिर, उन दीदी ने केक बनाया, केक केसा बना था  "दीन दयाल जी ने पूछा

जी, फिर मम्मी ने उन्हें केक बनाने को दिया था, क्यूंकि मेरा दिल चाह रहा था, केक खाने को, इसलिए मम्मी ने उन्हें चॉकलेट केक बनाने बोला, जो की मेरा पसंदीदा केक है, जो कुछ उन्होंने माँगा मम्मी ने सब दे दिया

लेकिन इतने घंटो बाद आखिर कार एक केक मिला वो भी जला हुआ, बेकार ज़ब मम्मी ने उनसे उस बारे में पूछा तब वो बोली " दीदी मेरी कोई गलती नही, आपका ओवन ही ख़राब है, ये समय से बंद नही हुआ, मैंने तो अच्छा ही बनाया था "

जबकी मम्मी हमेशा उसी ओवन से मजेदार केक बनाती है, उनसे तो कभी नही जला, तब मम्मी ने वो केक कूड़े दान में फेक दिया और बोली " जा तू रहने दे कोई और काम देख, नाच ना जाने, आँगन टेड़ा "

क्या मतलब हुआ, इसका दादा जी? मानव ने पूछा


तुम्हारी बताई गयी बात में ही इस मुहावरें का अर्थ छिपा है, लेकिन मैं तुम्हे उसे ढूंढ़ने का नही कहूँगा, उसे अपने हिसाब से तुम्हे समझाऊंगा ताकि तुम उसे समझ भी सको और उसे अपने शब्दों में पिरो भी सको


बेटा, कभी कभी इंसान, अपने अंदर किसी चीज या फिर हुनर के होने का सिर्फ दावा ही करता रहता है, असल में उसे उस बारे में बिलकुल भी ज्ञान नही होता है, या फिर थोड़ा बहुत होता भी है, तो खुद को बहुत बड़ा ज्ञानी समझ कर उस आधे अधूरे ज्ञान के साथ ही खुद को तुर्रम खा ( एक प्रकार का आम जुबान में बोले जाने वाला शब्द )समझने लगता है


लेकिन ज़ब उसे उसकी काबलियत दिखाने को कहा जाता है, पहले तो वो बहाने ढूंढता है और अगर उसे करना ही पड़ जाता है, और वो सही नही होता है तब वो उसका गलत होने का इल्जाम किसी अन्य इंसान, वस्तु या फिर किसी घटना पर डाल देता है, जैसा की तुम्हारी उन दीदी ने किया था, जो खुद को बहुत काबिल समझती थी केक बनाने में लेकिन ज़ब उन्हें केक बनाने को दिया गया, उनकी काबलियत को देखने का प्रयास किया गया तब वही हुआ जो इस तरह के लोग अकसर करते है, काम गलत होने पर इल्जाम दूसरों पर लगा देते है, और तुम्हारी उन दीदी ने सारा इल्जाम ओवन पर डाल दिया खुद को गलत कहने के बजाये


इसलिए तुम्हारी मम्मी ने ये मुहावरा कहा "नाच ना जाने, आँगन टेड़ा "


नाचना आता नही, और आंगन टेड़ा है का बहाना बना दिया, दीन दयाल जी ने कहा


"अच्छा, अब समझ आ गया, मम्मी ने इस तरह क्यूँ कहा था? शुक्रिया दादा जी मुझे बताने का वरना तो मुझे पता ही नही चलता कभी इस मुहावरें का अर्थ, अब मैं इसे अच्छे से कहानी का रूप दे सकूँगा " मानव ने कहा और अपने दादा जी के सीने से लग गया


दीन दयाल जी भी, अपने पोते को अपने सीने से लगा कर बेहद खुश थे, मानो बरसों बाद उन्हें किसी ने इतने करीब से अपने गले से लगाया हो, उनकी आँखे नम थी




मुहावरों की दुनिया प्रतियोगिता हेतु 


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3 Comments

Seema Priyadarshini sahay

06-Mar-2023 07:33 AM

बहुत बढ़िया👌👌

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Gunjan Kamal

20-Jan-2023 05:00 PM

वाह बहुत खूब

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Rajeev kumar jha

16-Jan-2023 04:02 PM

बहुत खूब

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